जीवन और मृत्यु (Survival and Death)

डार्विन के अनुसर जीवन संघर्षों में केवल वे प्राणी जी जीवित रह पाते हैं जो वातावरण के अनुसार अपने आप को अनुकूलित होते हैं। किसी भी स्थान का वातावरण एक जैसा न होकर परिवर्तन होता रहता हैं। जिसके कारण वहां के जीवों  को भोतिक कारको जैसे गरमी, सर्दी , सूखा, बाढ़ भूकंप आदि से जूझना पड़ता है। ऐसे वातावरण में वे ही जीव जीवित रह पाते हैं जो वातावरण के अनुरूप बदलने की क्षमता रखते हैं।
जैविक   क्रिया  का समाप्त हो जाना मृत्यु कहलाता है।
प्रकृति को संतुलन बनाए रखने में लिए मृत्यु आवश्यक 
हैं। जीव का जन्म होता है, उसमे वृद्धि एवं विकास होता हैं। विकसित प्राणी प्रजनन करता है, नयी संतति बनती है, बूढों में जीर्णता  शुरू होती हैं और अंत में मृत्यु हो जाती हैं। किसी भी जीव का अस्तित्व हमेशा नहीं रह सकता। जब एक कोशिका जीर्ण हो जाती है तो विभाजित होना बन्द हो जाती हैं लेकिन कुछ समय तक उपापचय के लिए सक्रिय रहती है और फिर धीरे धीरे लुप्त हो जाती है। हम जानते है कि जीवन मृत्यु की वजह से समाप्त होता है और जीव जीवन की इस हानि को पूरा करने में लिए जनन करते हैं। जीव विज्ञान में मृत्यु का बहुत अधिक महत्व होता है । सभी जीवित पोधे और जन्तु,निर्जीव पत्थर, चट्टाने आदि पदार्थ की बनी होती हैं। ये जीव - वैज्ञानिक रूप में चक्रित होती हैं। जब जीवो की मृत्यु होती है, सूक्ष्मजीव मृत जीवो  का  अपघटन कर देते हैं परिणामस्वरूप जीवित शरीर के संघटक तत्व जैसे-C,H,N,O,K,P,S, औरCa अपने सह संयोजी बन्ध से मुक्त होकर पारिस्थितिक तंत्र में वापस चले जाते हैं यह सजीव और निर्जीव पदार्थों के बीच में तत्वों के पुनर्चक्रण का एक उदाहरण है वास्तव में पुनर्चक्रण प्रकृति में पदार्थ के बीच संतुलन बनाए रखता है

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